संपादकीय
3 दिसंबर 2014

मौके पर खड़े-खड़े इंसाफ करने का अंदाज खतरनाक होता है। उनमें कभी तो किसी मुजरिम को सजा मिल जाती है, जिससे कि अदालत में शायद गुनहगार साबित नहीं किया जा सकता। लेकिन दूसरी तरफ इसमें बहुत से ऐसे बेगुनाह फंस सकते हैं जो कि भीड़ की बददिमागी से, या गलतफहमी से किसी शक में घिर गए हैं, और मौके पर इंसाफ की सजा पा रहे हैं। भीड़ की मार देखने में बहुत अच्छी लगती है, और तब तक ही अच्छी लगती है जब तक वह अपने सिर पर न पड़ती हो। छेड़छाड़ की शिकार हो, या गलतफहमी की शिकार, किसी लड़की का हमला हो, या किसी दूसरे मामले में सड़क पर से पीटते हुए ले जाती पुलिस हो, भीड़ का इंसाफ खतरनाक इसलिए होता है कि वह लोकतंत्र की सारी प्रक्रिया को खत्म करने वाला होता है।
अभी पिछले दिनों ही नागपुर का एक समाचार आया जिसमें वहां के एक स्थानीय संदिग्ध बदमाश को भीड़ ने अदालत में घुसकर मार डाला था। अदालत के भीतर या अदालत के अहाते में की गई इस हत्या को मुकदमे में साबित नहीं किया जा सका। लेकिन अदालत से परे, कानून से परे ऐसे कत्ल की इजाजत, ऐसी पिटाई की इजाजत नहीं दी जा सकती। भीड़ का इंसाफ देश भर में जगह-जगह सामने आता है, और यह हिंसा से भरा हुआ होता है, पता नहीं कितने मामलों में यह इंसाफ की जगह बेइंसाफी साबित होता है। हम हरियाणा की इन बहनों की इस कार्रवाई को किसी जायज वजह से की गई, या नाजायज वजह से की गई बात पर अभी नहीं जाते। लेकिन भारत में अदालती इंसाफ में खप जाती एक-दो पीढिय़ों को देखकर थके हुए लोग, पुलिस या सरकार के बेअसर होने से थके हुए लोग, या समाज के भीतर बदमाशी से थके हुए लोग ऐसी पिटाई को देखकर तालियां बजाने लगे, और मीडिया ने भी इन बहनों को बहादुरों की तरह पेश किया। अब अगर पल भर को बहस के लिए यह मान लें कि यह मामला छेडख़ानी का नहीं था, और सीट के झगड़े का था, तो ऐसे हमले से किसी लड़के या आदमी की इज्जत भी मटियामेट हो गई, और अगला वीडियो सामने आने से एक नया शक भी खड़ा हो गया कि क्या ये बहनें सचमुच ही झगड़ालू हैं जो कि किसी को पीटकर उसकी वीडियो बनवाती हैं।
कानून चाहे कम असरदार हो, या बेअसर हो, सड़कों पर इंसाफ उसका विकल्प नहीं हो सकता। कल के कल दो-तीन ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें छेडख़ानी का आरोप लगाकर किसी को पीटा गया है। आन्ध्रप्रदेश का एक ऐसा मामला सामने आया है जिसमें पुलिस ने पचास बरस के एक आदमी को सड़क पर पीटा है, और उस पर छेडख़ानी का आरोप लगाया है। भीड़ और पुलिस इन दोनों को न्याय की प्रक्रिया से गुजरे बिना हाथों-हाथ फैसला करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। नक्सल इलाकों के जंगल-गांव में नक्सली जिस तरह जनसुनवाई का नाम देकर जिसका चाहे उसका गला काट देते हैं, वैसी हरकत शहरी सड़कों पर नहीं करने दी जा सकती। और आज के जमाने में मारपीट के किसी हिस्से के वीडियो को देखकर कुछ फैसला लेने के पहले अपनी सामान्य समझबूझ से भी काम लेना चाहिए, और उस वीडियो से बनती हुई पूरी तस्वीर को जब संदेह से परे समझ लिया जाए, तभी उस पर खबर बनानी चाहिए।
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