3 अगस्त 2015
संपादकीय
संसद का यह पूरा सत्र तबाह होते दिख रहा है, और सरकार जिन विधेयकों को लाकर वहां सरकारी कामकाज करवाना चाहती थी, वह तो धरे ही रह गया, अब तो मुफ्तखोरी की नौबत यहां तक पहुंच गई है कि संसद के भीतर के लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि बिना कामकाज किए सांसदों का वेतन-भत्ता लेना जायज है क्या? और कमोबेश ऐसा ही हाल देश में बहुत सी विधानसभाओं का है, जहां पर सत्ता और विपक्ष पूरे-पूरे सत्र को केवल एक-दूसरे से विरोध में खत्म कर दे रहे हैं। हमारा इस बारे में हर बार यही लिखना रहा है कि सदन को, संसद हो या विधानसभा, या चाहे वह म्युनिसिपल और पंचायत की बैठकें हों, उनको विरोध में तबाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में उनकी भूमिका विरोध-प्रदर्शन के नुक्कड़ से बहुत अधिक है। अब चूंकि लोकतंत्र परंपराओं पर चलने वाली व्यवस्था है, इसलिए आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी के सामने ऐसी अनगिनत मिसालें हैं जिनमें उसकी सरकार रहते हुए विपक्ष ने काम नहीं होने दिया था। आज मानो उसी का भुगतान करने के लिए कांग्रेस काम नहीं चलने दे रही है, और लोकसभा में कांग्रेस के नेता ने यह खुला बयान दिया है कि अगर सरकार संसद चलने देना चाहती है, तो उसे विपक्ष की मांग माननी पड़ेगी।
यहां सवाल यह उठता है कि क्या संसद सरकार की है? या सरकार है? जिन लोगों को भारत की संसदीय व्यवस्था और भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढांचे की जरा भी समझ न हो, उनका तो ऐसा कहना जायज हो सकता है, लेकिन लोकसभा में कांग्रेस के नेता और एक पुराने सांसद मल्लिकार्जुन खड़ग़े अगर यह कहते हैं कि सरकार संसद चलाना चाहती है तो उसे विपक्ष की मांग माननी पड़ेगी, तो यह न सिर्फ कांग्रेस की बददिमागी है, बल्कि यह बहुत ही अलोकतांत्रिक समझ भी है। हमारा तो यह मानना है कि संसद सरकार के मुकाबले विपक्ष के लिए अधिक होती है। कोई सरकार अगर किसी कानून में फेरबदल न करे, तो पूरे पांच बरस के विपक्षी बहिष्कार के बाद भी वह तो सरकार चला सकती है, लेकिन संसद के बिना विपक्ष क्या विपक्ष रह जाएगा? कांग्रेस को आज विपक्ष को संसद की जरूरत शायद इसलिए नहीं लग रही है कि वह अब संसद में प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा भी नहीं पा सकी है। और उसके लिए यह संसद उसे फिजूल लग सकती है। लेकिन यही वह संसद है जो आजादी से लेकर अब तक बहुत से ऐतिहासिक मौकों पर बहुत से महान सांसदों के महान भाषणों का इतिहास दर्ज करके बैठी है।
सरकार तो बिना संसद काम चला सकती है, उसके लिए संसद में विपक्षी सवालों का सामना न करना तो अधिक सहूलियत की बात हो सकती है, लेकिन देश की जनता की जिन दिक्कतों और जरूरतों को संसद में उठाना और उनके लिए सरकार को घेरना विपक्ष की जिम्मेदारी है, उस जिम्मेदारी से बचकर विपक्ष सिवाय मुफ्तखोर-गैरजिम्मेदार होने के और कुछ साबित नहीं कर रहा है। चाहे जिस किसी मुद्दे पर, चाहे जितना ही गहरा विरोध क्यों न हो, संसद का बहिष्कार लोकतंत्र का बहिष्कार है। लोग संसद की अपनी जिम्मेदारी को पूरा किए बिना जब वहां रियायती खाना पाते हैं, वेतन-भत्ते पाते हैं, तो लोगों के मन में उनके लिए गालियां निकलती हैं। लेकिन हम इस खर्च को बहुत बड़ा नहीं पाते, इस नगद नुकसान से करोड़ों गुना अधिक नुकसान उस संसदीय अवसर का है, उस लोकतांत्रिक विशेषाधिकार का है, जो कि सिर्फ संसद के भीतर के लोगों का है। संसद के बाहर जनता आंदोलन तो जितना चाहे उतना कर सकती है, लेकिन सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर तो संसद के भीतर बैठे लोग ही कर सकते हैं।
पिछली सरकारों के वक्त भी हमारा यही कहना था कि विपक्ष को संसद के सत्र के पल-पल का इस्तेमाल करना चाहिए, और फिर वह सदन के बाहर जैसा चाहे वैसा विरोध करे, या कि सदन के भीतर भी समय को बढ़वाकर विरोध के लिए अधिक समय मांगे और उसमें विरोध की बातें करे। देश के आम मजदूर भी बिना मेहनत किए रोजी-रोटी नहीं पाते, और न ही उसकी मांग भी करते, लेकिन एक मजदूर के विकल्प दूसरे मजदूर हो सकते हंै, एक सांसद के विकल्प दूसरे सांसद नहीं हो सकते। कांग्रेस वैसे भी अपनी राजनीतिक ताकत के मामले में संसद में जमीन पर बिछी हुई है, उसके पास इतनी गिनी-चुनी सीटें बची हैं, कि उसे कोई दर्जा भी नहीं मिल सकता, अब संसद के बाहर भी वह जनता की नजरों में कोई भी दर्जा पाने का मौका खो रही है। यह सिलसिला लोकतंत्र के लिए घातक है, और कांग्रेस के लिए आत्मघाती है।
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